
Abhishek Chourasia
शीर्षकहीन....2018
इससे पहले के प्रत्येक चित्र का सुनिश्चित शीर्षक अथवा हेतु को ध्यान में रखकर कार्य किये है। परंतु इस चित्र का आरंभ इसके विपरित दिशा में हुई। न जाने इस चित्र के लिये उचित शीर्षक चयन नहीं कर पाया। लेकिन इस कैनवास पर अनेक रेखांकन किये और उन्हें बदलते-बदलते इस आकार को साकार कर पाया।

इस कारण इस चित्र का शीर्षक के लिये “शीर्षक हीन....2018” (Untitled....2018) उचित लगा। अब ये अलग बात है, की “शीर्षक हीन” यह स्वम एक शीर्षक है या नहीं इस उलझन में उलझना नहीं चाहता। इस विषय पर पहले ही वाद-विवाद हो चुके है। मेरा तो मानना है, की किसी चित्र को विषय में रखने से उस चित्र का एक निश्चित नज़रिया बन जाता है। जिस कारण वह चित्र एक सीमित दायरे में आ जाता है। परंतु चित्र को किसी दायरे में सीमित नहीं किया जा सकता वह तो अपने आप में स्वम का विश्व होता है। शायद हमारा व कला रसिको का नजरिया सीमित हो सकता है। हमारी विचार शक्ति संकुचित हो सकती है। यह स्थिति भी तब बनेगी जब हम किसी चित्र को एक स्थिर विषय पर प्रकट करेंगे। और उस चित्र को एक केन्द्र बिन्दु की पटल पर दिखायेंगे। हालांकि कलाकार के द्वारा चित्र साकार तो हो जाती है। परंतु चित्र तैयार करने में लगने वाला समय महत्वपूर्ण होता है। और उस समय में लगने वाली कलाकार की मनस्थिति, उसके अनुभव, संस्कार, जीवन के सुख-दुख व आर्थिक स्थिति आदी अनको परिस्थितियों का समावेश होता है। अब इन सभी परिस्थिति व परिणामों की अनुभूति चित्र देखने वाले रसिक को किस प्रकार होगा, और कितने प्रणाम में मिलेगा अथवा कितना समय लगेगा व किस परिस्थिति में होगा यह कहा नहीं जा सकता। हाँ यह भी तय नहीं है की उपरोक्त सभी अनुभवों का परिचय रसिक को एक समय में हो जाये। यह तो रसिक के रस ग्रहण करने की शक्ति पर निर्भर है।
मैं अपने चित्र की ओर लौटता हूँ। मुझे नहीं मालूम की इस आकार की उत्पत्ति का कारण क्या है। शायद आने वाले समय में इसके हेतु से परिचित हो सकूँ। इसलिये इसका शीर्षक शीर्षकहीन....2018 (Untitled....2018)रखा है। शायद इस परिस्थिति में उपरोक्त लिखे कथन अनुसार चित्र के विषय, हेतु की अनुभूति रसिकों को कब और किस परिस्थिति में होगा शायद यही नियम मुझपर भी लागू हो रहा है। चित्र तो तैयार हो गई परंतु इस चित्र का हेतु अभी भी अदृश्य है।
शीर्षकहीन....2018